जुनि हमरा चाहि, धनक गठडिया |
दए दिय हमरा,हमर माटी कए पुडिया ||
लए लियअ हमरा सँ,हमर कमायल धन |
धन हमर मिथिला, माटी एकर धन ||
मायक आँचर सँ,हमर मिथिलाक धरती |
पायब एहन कहु, दोसर कतए धरती ||
दूर भए कए बुझलौंह, मोल एकर हम |
कि थिक हमर, आ कि एकर हम ||
जाहि आँगन में, जनमलौंह खेलेलौंह |
दाबा पकैर जतए, चलब हम सिखलौंह ||
आई ओही आँगन सँ,एतेक दूर भएलौंह |
कचोतैए मोन कए,दर्शनों नहि कएलौंह ||
*** जगदानंद झा 'मनु'
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"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका,१५ नवम्बर २०११,में प्रकाशित
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रविवार, 15 जनवरी 2012
कविता -धन हमर मिथिला
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bahut nik pryas,bahut nik lagal kavita paidh k
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